साप्ताहिक प्रतियोगिता
नमन-'बदलाव मंच'
वरदान
मैं आज सुबह दीप जला रही थी
माँ की कुछ भेंटे गा रही थी
अपने अंदर की आस्था जगा रही थी
देवी माँ को रिझा रही थी कुछ
वरदान माँगना चाह रहे थे
सिर झुकाते झुकाते फिर एक ख्याल आया
ख्याल ने मस्तिष्क में एक तांडव मचाया
इच्छाएँ अपेक्षायें तो मुझसे भी हैं सभी को
हर एक घर में चाहता है उसकी इच्छा अनुसार सब हो
दादा जी की दवा तथास्तु
दादी का चश्मा तथास्तु
वक़्त पर सबको खाना
और बच्चों को पढ़ाना
घर का रख रखाव
रिश्तेदारियों का दबाव तथास्तु तथास्तु तथास्तु
तो फिर क्यूँ मैं आदर नहीं पाती
क्यूँ मेरी जय-जयकार नहीं लगाई जाती
क्यूँ हर समस्या की दोषी मैं ठहरायी जाती
क्यूँ मेरे लिए कभी कोई चीज़ ख़ास मेरे लिए नहीं बनायी जाती
मैं माँ की तरह अदृश्य ये छोटा-सा ब्रह्मांड चलाती हूँ
और माँ की तरह ही कभी नज़र नहीं आती हूँ
तब हुई नत मस्तक और कहा माँ से ये
हे ब्रह्मांड संचालक इतना वरदान दे
मेरे अंदर की हे माँ देवी को जीवित तु कर दे
फिर ना कोई मारे ना प्रताड़ना से तड़पे
मेरे रहते मेरी माँ कोई महिषासुर ना पनपे
माँ आयी और बोली तू है अंश मेरा
तू जा युद्ध कर हारना असम्भव है तेरा
तू लड़ हर कुरीति हर अन्याय से जाकर
तेरे हर वार में तेरे संग बल होगा मेरा
ऐ गिरी नंदिनी..............
-अनुपम रमेश किंगर
*मौलिक व स्वरचित रचना*
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