शह और मात
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जिन्दगी का विस्तृत मैदान में ,
एक खेल शह और मात का।
जिन्दगी में आये कभी ग्रीष्म ऋतु,
फिर कभी मूसलाधार बरसात का।
पल-पल बदलती जिन्दगी का रूप,
फुहार खुशियो की जलाए पाँव धूप।
जीत की खुशियां करे मन को उल्लासित,
लगता धरा का हर रूप सुगंध से सुवासित।
अभिलाषा तो एक असीमित गगन,
हार का संताप से दुखी मानव का चित्त।
जीना जिन्दगी हर हाल में होकर मगन,
किसी को मुक्कमल जहाँ मिला कहाँ?
अभिलाषित उचाईयों का कही गगन नहीं,
हो महत्वकांक्षाओं का क्षितिज जहाँ ।
ये जिंदगी की शह-मात का खेल पुराना,
कोई ढूंढ ना पाया आज भी अंत जमाना।
होता किसी भी खेल का अंत हार या जीत,
युगों से रही ये दुनियां की पुरानी रीत।
हे अभिलाषित मानव दोनों से कर ले प्रीत,
जमाने का दस्तूर कभी शह कभी मात
आजतक बदला नही जमाने का दस्तूर।
मानवों की जिंदगी उलझी रही इस खेल में,
अहंकार के इस खेल में जीत भी क्षणभंगुर।
सबसे सुखद खेल मानवों से मानवों से मेल में,
परसुख की पीड़ा से पीड़ित ये दुखी संसार।
परसेवा और परमार्थ से बढ़कर कोई शह नही,
पर मात खाते खेल का नहीं नियम मालूम सही।
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स्वरचित और मौलिक
सर्वधिकार सुरक्षित
कवयित्री-शशिलता पाण्डेय
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