कवि अभिषेक अग्निहोत्री 'वहम' जी द्वारा 'वक्त' विषय पर रचना

वो वक़्त और था जब दोस्त मिलते बैठते थे..
अब तो मज़ा यार किसी शाम में कुछ नहीं..

दूसरे क्या करते हैं सभी का ध्यान है इसमें..
ध्यान किसी का अपने काम में कुछ नहीं..

एक गरीबी है जो यहां मुफ्त में बंटती है..
वरना तो मिलता है यहां कम दाम में कुछ नहीं..

नेताजी भरे जाते हैं बस अपने ख़ज़ाने..
दिलचस्पी है उनको आवाम में कुछ नहीं..

नशा होने का क़ामयाब का सर पर है मेरे..
नशा मेरे लिए अब किसी जाम में कुछ नहीं..

जो कुछ है मां बाप के आशीर्वाद में है..
वगरना तो है साहब राम में कुछ नहीं..

तू इस काबिल ही नहीं कि तुझपे जां निसार करूँ..
वरना तो है 'वहम' मजनू मेरे सामने कुछ नहीं..

~अभिषेक अग्निहोत्री 'वहम'

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