कवयित्री गीता पाण्डेय जी द्वारा रचना “उठो द्रौपदी"

विषय------ "उठो द्रौपदी"
 
उठो द्रौपदी,इस सभा ने आज किया शर्मसार। 
स्त्री की मर्यादा हनन, होता है उनके अनुसार ।
गली,चौराहे,गाँव,शहर में भरें पड़े है दुःशासन।
चीरहरण करने में,डरते नहीं, तनिक प्रशासन।

डरते नहीं क्योंकि आज श्रीकृष्ण का है अभाव।
जगह-जगह दु:शासन,दुर्योधन का ही है प्रभाव।
कौरव जैसे पापियों की, बढती जा रही है भीड़। 
तभी तो बलत्कार,उत्पीड़न नहीं हो रहा है क्षीण।

नहीं हो रहा है क्षीण,बढता ही जा रहा है ये पाप।
हे द्रौपदी कटार लेके,खुद खड़ी हो जाइए आप।
खुद खड़ी होकर, दु:शासनों का कीजिये संहार।
आज समाज में, बढता जा रहा दूषित व्यवहार।

दूषित व्यवहार से  बहन,बेटियाँ हो गई है त्रस्त।
स्त्री को वासना के नजर से देख,रहते है मस्त।
उठो द्रौपदी,ये भेड़ियों को करना है अब पस्त।
स्त्रियों के प्रति बुरी नजर से ये हुए है अभ्यस्त।

आये दिन सभ्य समाज पर ये लगाते है कलंक।
इनके चलते बहन-बेटियाँ नही रहतीं हैं निःशंक।
नहीं रहतीं निःशंक,घर में भी रहती असुरक्षित।
चाहे वे क्यों न पढ़ी लिखी हो,या हो अशिक्षित।

उठो द्रौपदी,कौरवं-पाण्डवों की सभा है मौजूद।
चीरहरण का मंसा है,भीष्म के रहने के बावजूद।
अब श्रीकृष्ण कहाँ,जो आपका कर लेंगे बचाव।
हे द्रौपदी कौन लगायेगा मरहम,आपके उन घाव?

स्वरचित कविता 
गीता पाण्डेय रायबरेली,उत्तर प्रदेश

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