तुम तो एक परदेशी ठहरे#शशिलता पाण्डेय जी द्वारा खूबसूरत रचना#

तुम तो एक परदेशी ठहरे
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खुलें गगन में मैं उड़नेवाली,
     मैं आजादी की हूँ दीवानी।
          तुम तो एक परदेशी ठहरें,
             पीते न अपनें देश का पानी।
तुम बोलें परदेश की वाणी,
    कर भी नहीं सकतें मनमानी।
          परदेश है सोने का पिजड़ा,
               सारा सुख-चैन तो उजड़ा।
निर्निमेष पलकों से माँ तेरी,
     जोहती बाट मन मे लेकर बैचनी।
            दौलत के मद में भूल गयें तुम,
               जननी-जन्म भूमि अपनी।
अपनी माँ के त्याग समर्पण को,
           क्यो?आसानी से भूल गए तुम।
                दुसरो की गुलामी कर-कर के,
                   अपनी आजादी भी गवांते हो!
                    पर-सेवा कर परदेश में पैसा,
अपनी कमाई का खूब लुटाते हो।
      अपनें देश की धरती कें धन से,
           अपनी सारी परवरिश पाते हो।
                   तुम तो ठहरें परदेशी!
परसेवा कर परदेश में,
      ठाट -बाट दिखाते हो!
          सुखी रोटी अपनें देश की,
              हम सुख-चैन से खाते है!
अपनी धरती अपनी संस्कृति,
       अपनी पहचान अपनों से होती।
             अपनी होली और दीवाली उत्सव,
                    अपनों से दूर मनातें हो!
तुम तो एक परदेशी ठहरें,
     परदेशी संगीत बजाते हो!
          अपनीं देश के सुंदर संस्कार,
               परदेश जाकर भूल जाते हो।
देशप्रेम में अपनें वीर जवान भी,
      शहीद होकर वीर सपूत कहलाते है।
           परदेश की कर के गुलामी चमक-दमक,
                दिखाकर कितना तुम इतराते हो?
तुम तो एक परदेशी ठहरें,
     बड़े  शान  से रहतें हो ।
          अपनें परदेशी ठाट-बाट के बदलें में,
                परदेश की गुलामी करतें हो!
मैं तो पंक्षी आजाद चमन की,
    आजादी से उड़ती रहती हूँ!
            तुम तो एक परदेशी ठहरे,
               अपना छोड़ देश परदेश में रहतें हो!
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स्वरचित और मौलिक
लेखिका-शशिलता पाण्डेय
सर्वाधिकार सुरक्षित

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