अब अपने ही#प्रकाश कुमार मधुबनी"चंदन" जी द्वारा बेहतरीन रचना#

*स्वरचित रचना*

*अब अपने ही*
अपने ही लोग अब अंजान बनने लगे है।
जो मौन थे कभी खुलके कहने लगे है।।
कहे क्या उनसे अब समझ में नही आता।
जो नही किया वो भी इल्जाम धड़ने लगे है।।

सोचो ऐसा भी आखिर है हमने किया क्या।
कभी किसी के जख्मों को है कुरेदा क्या।।
फिर ऐसा हुआ क्या जाने पल भर में यारों।
की ताजे जख्मों पर नमक छिड़कने लगे है।।

समय है विपरीत मेरा कभी उनका भी आएगा।
है ऊँट पहाड़ पर तो क्या कभी नीचे भी आएगा।।
 क्या कहे उनको जरा भी समझ नही है क्या।
जो जानबूझकर के ही लीपापोती करने लगे है।।

*प्रकाश कुमार मधुबनी"चंदन"*

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