नाटक
जिंदगी भी कैसे नाटक खेलती है, हम किरदार होकर भी बस दर्शक बनकर रह जाते हैं ।
अजब से खेल खेलती है, न जीतने देती है न हारने देती है ।
कभी सपना बनकर छा जाती है, कभी सच बनकर चैन छीन लेती है ।
नाटक! नाटक ही तो है ना ज़िंदगी? अंजानों को ऐसे मिलाती है जैसे जनमों का नाता हो, कोई इतना अपना बन जाता है कि इंसान भूल जाता है की यह तो नाटक है, ज़िंदगी का नाटक! हम तो बस! किरदार हैं, हम भूल जाते हैं ये ज़ालिम जाने कब पर्दा गिरा दे और हम खड़े रह जाएँ उसी किरदार में रंगे, उसी में ढले, ठगे से,समझ ही नहीं पाते कि हम क्या हैं, क्यों हैं?बस ढलते चले जाते हैं उस किरदार के, उस पात्र के रंग में ।लेकिन साहब हम उस पात्र के रंग में ऐसे रंग जाते हैं कि जब रंग उतरते हैं तो समझ आता है कि हम तो खत्म हो गए ।
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