*वापस चलो*
वापस आओ तारो के छाँव में।
एकबार सही वापस गाँव में।।
पीपल के पत्तों की आती आवाजे।
वही पुराने खेत वही दरवाजे।।
जहाँ दलानो पर लगता बैठक।
वो शर्माते लोग पुरानी पनघट।।
जहाँ मिलती सच्चे रिस्ते नातेदारी।
जहाँ मन लोगो का जैसे ऐनक।।
बहुत हुआ दिखावे की जिंदगी।
अपने बच्चों को सिखाना दरिंदगी।।
आओ लौटे फिर वही बचपन में।
वही खेलने पुराने बरगद की छांव में।।
रास्तों पर बहे जहाँ सदा बयार।
जहाँ दिखता अब भी सच्चा प्यार।।
बीत ना जाये जीवन केवल रौदन में।
इससे बेहतर जीये उसी मधुबन में।।
शहर में तो केवल अंगप्रदर्शन।
गाँव होता मानवता के दर्शन।।
फँसे क्यों केवल मोह के भंवर में।
आओ ना बैठें प्रेम के नाव में।।
दिखे सदा जहाँ मान मर्यादा।
होता सदैव समर्पण व चढ़ावा।।
ना होते अकेलापन के प्रभाव में।
क्यों ना लौट चले ऐसे गाँव में।।
नही होता जहाँ रिस्तो का व्यापार।
जहाँ मिलता देखने को सदाचार।।
इधर उधर जाने भटक रहे किधर।
क्यों पहने हुए है जंजीर पाँव में।।
प्रकाश कुमार मधुबनी"चंदन"
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