राजा-रंक सभी फल ढो़ते....
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मानव तन पाकर नहीं करना,
अवहेलना सत्य - धर्म की।
राजा- रंक सभी फल ढो़ते,
अपने- अपने कर्म की ।
सनातन से कर्म प्रधान है,
करना है सत्कर्म सदा ।
मोक्ष,मुक्ति ,कैवल्य पद का,
सबल यहीं अर्मत्य अदा ।
चुक जाने पर नहीं होगा ,
नर तन की अहा पुनः बदा।
समय कम है सजग बनो ,
कभी ना करना यदा - कदा।
समझो महिमा अदभुत न्यारी,
मानवता के मर्म की ।
राजा -रंक सभी फल ढो़ते ,
अपने - अपने कर्म की ।
परमार्थ ,परहित के पथ पर ,
चलना ही हित कारक है।
जीव ,जगत कल्याण ही तो,
भव सागर का तारक है।
अघ ,अवगुण,अधर्म जग में,
अहा ! हृदय विदारक है।
सकल सुख - शान्ति का यही,
तो सदा समूल जारक है।
आत्मसात कर सत्य - धर्म,
छोडो़ पथ अधर्म की।
राजा -रंक सभी फल ढो़ते,
अपने - अपने कर्म की।
बद कमाई भुलकर भी ,
कदापि खाना नहीं।
नेक नियत से नेक कमाई,
करने में शर्माना नहीं।
अपने धन , बल ,आदि का ,
भी घमंड लाना नहीं।
निज कर्मो का फल पाना है,
कभी बुरे कर्मो में जाना नहीं।
छवि ना बिगडे़, बाबूराम कवि,
कभी भी मानव धर्म की।
राजा - रंक सभी फल ढो़ते,
अपने अपने कर्म की।
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बाबूराम सिंह कवि
बड़का खुटहाँ , विजयीपुर
गोपालगंज(बिहार)
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