अंतिम इच्छा
जिंदा जलाया नहीं, जिंदा लटकाना है।
मंजिल दूर बहुत है, आगे और जाना है।।
जला दूं या लटका दूं या काट डालूं बोटियां-बोटियां।
क्या तुम वापस आओगी? चहकती हुई-सी चिड़ियां।
न तुम दीख पाओगी खेलते, कूदते, दौड़ते, हंसते।
अब तो जख्म रहेंगे, हरपल रिसते -ही- रिसते।।
दरिंदों को क्या? दरिंदगी को सजा-ए-मौत दो।
पल यह फिर वापस न हो, हैवानों को मत बख्शो।।
हैवानियत का नंगा नाच हर- जगह हो रहा।
कुकर्मियों के दुष्कर्मों से उपवन दूषित हो रहा।।
फूटने से पहले पापों का घड़ा भरता है।
कराहों और चीखों को सौ तक पहुंचना पड़ता है।।
चीखें जो खामोश हुई, क्या वह वापस आएगी?
खामोशी से जाने वाली, हरपल तू रुलाएगी।।
इज्जत गई, आबरू लुटी कह- कह कर तोड़ देते हो।
अरे, इस जिस्मानी हिंसा को क्यों मन से जोड़ देते हो?
मन तो निर्मल,पावन है, शिवालय में जल -अर्पण है।
खूनी, पापी के छूने से क्या वह मृत्यु का तर्पण है?
नहीं, नहीं मत कहो किसी की इज्जत गई, आबरू लुटी।
दुर्घटना है यह, किस्मत नहीं किसी की फूटी।।
सर्पदंश से मारो मत, जो खुद ही विष पी रही।
आओ रक्षा कवच बनाएं, मानवता की मांग यही।
प्रतिबंधित करो इन शब्दों को, इज्जत गई, आबरू लुटी।
ऐसी हल्की यह तो नहीं, सारे जन्मों की है घूंटी।।
विकृतियों के बीजों का खुद ही होली चला दो ना।
सुसंस्कृत संस्कारों की स्वर्णमयी दीपों से दिवाली मना लो ना।।
संदर्भः दामिनी बलात्कार हत्याकांड पर फांसी की सजा।
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