सादर समीक्षार्थ
अतुकान्तिका
हे मानव ! तू कुछ सोच जरा
जन्म लिया जिस धरा पर तूने
केवल उसका उपभोग किया
निज स्वार्थ हित ही तूने क्या
जीवन अपना पूर्ण किया..?
कभी न किसी का साथ दिया
न जग हित कोई काम किया
समय दिया न, कुछ सोचा तूने..
यह कैसा अपराध किया..?
है समय अभी, फिर न रहेगा
जो असहाय अपंग निराश्रित हैं
उनकी भी तू कुछ, सोच जरा
जीते जी तो कुछ, कर न सके
मरकर तो कुछ जनहित कर जाएँ..
मृत देह, पंचतत्व विलीन हो
उससे पूर्व यह पुनीत कार्य करें
स्वेच्छा पूर्वक निज,मृत शरीर का
यदि हम जग हित में दान करें..
अंग हीन किसी बेबस के हित हम
अंग अपने हम दान कर जाएँ..
मर कर भी किसी के काम आ पाएँ..
मानवता हित, पुनीत कार्य हम
जीते जी ही, यदि कर जाएँ..
संपूर्ण धरा पर, मानव जीवन हम हर्षित बस, कर जाएँ ..
आज प्रतिज्ञा करें, यही हम अपनी मृत देह, दान कर जाएँ..
मरने के बाद किसी के काम आएँ ..
अद्भुत पुण्य, कमा ले जाएँ
अपनी मृत देह दान हम कर जाएँ ..।।
डॉ. राजेश कुमार जैन
श्रीनगर गढ़वाल
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