कवयित्री स्वेता कुमारी जी द्वारा रचना “बेटी"

बेटी

बेटियांँ होती  घर की रौनक,
घर में हो तो होती चहक,
कभी इधर कभी उधर,
छम छम करती घूमती चारों पहर,
बेटियांँ होती घर की रौनक।।


पापा के घर आते ही आती पानी लेकर,
पूछती उनसे क्या हुआ पापा दिन भर।
मम्मी के संग हाथ बंँटाती,
फिर थक कर आहें भरती।
झुन झुन करती उसकी पायल,
गुनगुनाये वो गाना दिन भर।।


बेटियां होती घर की रौनक,
उसके होने से घर मे होती महक,
कभी साड़ी , कभी लिपस्टिक,
कभी बिंदी तो  कभी चूड़ी पहनकर,
फुदकती रहती परी बनकर।
बेटियांँ होती घर की रौनक।।


लाज, सज्जा है गहना उसका,
मन को लुभाये कहना उसका।
पढ़ लिख कर करे नाम ऊँचा,
घूंघट में भी रहकर करे अचंभा।
प्यार मिले तो जान लुटा दे सबपर,
वरना काली बन कर करे सत्यानाश उसका।।


बेटियां होती घर की रौनक,
घर मे हो तो होती चहक।।

स्वरचित रचना, 
स्वेता कुमारी,
धुर्वा, रांची
झारखंड।।

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