कवयित्री डाॅ ज्योत्सना सिंह साहित्य ज्योति जी द्वारा रचना"जीने की कला"

"जीने की कला"

रंगीन लिबास में सजा अस्तित्व,
सांसो की ठोकर से 
चलने को मजबूर हो जाए 
तो जीवन एक 
अशांत यात्रा लगने लगता है।
सीने में दबा शून्य 
हर पल अपना आकार 
बढ़ाने लगता है।
और सब कुछ ,
सार हीन,तत्व हीन,सत्व हीन 
प्रतीत होता है ।
हताश मन  अवसाद 
और फिर आत्महत्या को 
उन्मुख होता है
पर यह स्थिति विश्राम लेने की है,
न की विराम लेने की!
अंतर्द्वंद के तराजू पर ,
सतत जोह की प्रक्रिया में
कभी विश्राम का पलड़ा 
भारी होता है 
तो कभी विराम का। 
अंतर्मन की उधेड़ बुन
और अवसाद का दबाव,
जिंदगी और मौत में 
कश्मकश  बढ़ा देता है 
पर ऐसे में आशा और 
धैर्य का साथ नहीं छोड़ना 
वही इनमे धीरे से 
संतुलन बनाएगा
और फिर सीने में दबे 
शून्य के आगे अंकों की 
गिनती बढ़ जाएगी
और साथ ही सांसों की भी।
बस यही जीवन जीने की कला है।।


डाॅ ज्योत्सना सिंह साहित्य ज्योति

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