*दिनांक-03/10/2020*
*विधा-कविता*
*शीर्षक-'दरिंदों के अवतार*
गली-गली दुःशासन घूमे,
घर-घर रावण आज हैं।
बेटे, भाई, पिता नहीं ये
दरिंदों के अवतार हैं।
जिस छाती का दूध पीकर,
समझें खुद को मर्द जवां।
उसी छाती को छलनी करते,
कोख को करते तार-तार हैं।
जवान काटें, हड्डी तोड़ें,काँच ढूँसें,अंग-भंग कर डालते।
सच बतला ओ नामर्द तू,
किस खेत की खरपतवार है।
आँख के अंधे,वहसी दरिंदे हैवानियत का करते नंगा नाच हैं।
क्या माँ, क्या बहन, क्या बेटी इन भेड़ियों ने किया
दादी-नानी की इज्जत को भी तार-तार है।
चूड़ी पहने, कुर्सी गरमाते
ये क्या न्याय दिलाएँगे।
टी.वी.अखबारों में भौंकेंगे ये बस,
नोटों और सत्ता के आगे ये भी हुए लाचार हैं।
उठो भारत की बेटियों,
किसी का न अब तुम इंतजार करो।
तुम्हारी लाज बचाने को, अब माधव न आएँगे।
चंडी बन हथियार उठाओ, करना तुम्हें अब इनका संहार है।
इस घिनौने अपराध की सज़ा,
बस इतनी होनी चाहिए।
न केस न सुनवाई हो, दाग-दागकर मारो इनको, जिनसे
रोशनी दीक्षित *रित्री*बिलासपुर छत्तीसगढ़.........
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