शीर्षक - रानी लक्ष्मीबाई
मणिकर्णिका , मोरोपंत - भागीरथी की संतान अकेली थी
कानपुर के नाना की मुंहबोली अलबेली बहन छबीली थी
बचपन से ही खड्ग, कृपाण, कटारी बनी उसकी सहेली थी
देश भक्ति ,साहस, शौर्य, पराक्रम की मूर्ति दुर्गा की बनी सहेली थी
झांँसी की रानी जब दहाड़ रही थी, अंग्रेजी सेना होकर निरीह निहार रही थी
वह रुद्र देवता जय जय काली बोल रही थी, अंग्रेजों की टांगें कांप रहीं थीं
स्वतंत्रता की चिनगारी जिसने पूरे भारत में भडकायी थी
उसके अंतर्मन में प्रखर , प्रचंड अग्नि ज्वाल समायी थी
झांँसी से अंग्रेजों को खदेड़ कर बढ़ी कालपी आयी थी
कालपी से पहुंच ग्वालियर गोरी सेना की नींद भगायी थी
अंग्रेजों के मित्र सिंधिया के असहयोग से सिंहनी आहत बहुत हुयी थी
यहां रानी का घोड़ा नया था, ह्यूम की सेना घेरे चारों ओर खडी थी
फिर भी लक्ष्मीबाई ने भारत माता को अंग्रेजों के मुंडों की भारी भेंट चढायी थी
रानी लक्ष्मीबाई थी घिरी अकेली , घायल सिंहनी गिरी धरा पर अमर वीर गति पायी थी
अंग्रेजी तलवारों से भारी लक्ष्मीबाई की तलवारें थी जो चलीं विजली सी दुधारी थीं
पूरा भारत जिसकी उतारता आरती ऐसी वह दुर्गा शक्ति अवतारी थीं
लक्ष्मीबाई पर चढ़ा बुंदेलखंड का पानी था उस पर वह वीर मराठा पानी थी।
वह गंगाधर से ब्याही मानो भवानी थी, जिसने अंग्रेजों को याद करायी नानी थी।
जय रानी लक्ष्मीबाई
जय मांँ भारती
चंद्रप्रकाश गुप्त "चंद्र"
अहमदाबाद , गुजरात
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मैं चंद्र प्रकाश गुप्त चंद्र अहमदाबाद गुजरात घोषणा करता हूं कि उपरोक्त रचना मेरी स्वरचित मौलिक एवं अप्रकाशित है
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