कवि रमेशा बोंगाले जी द्वारा रचना ‘बहाने का खजाना'

(दीवाली के अवसर पर )

          बहाने का खजाना 

बाह्य अंधकार तो मात्र इक बहाना
आंतर्य में भरा है उसका खजाना
हटाए बिना उसे अविलंब
सदगुण पर कैसे हो अवलंब ? 

आतिशबाजी तो मात्र एक बहाना
आंतर्य में जल्दबाजी का है खजाना 
हटाए बिना उसे अविलंब 
संमय पर कैसे हो अवलंब ? 

भूरि भोज तो मात्र इक बहाना
अंतर्य में बुरी खोज का है खजाना 
मिटाए बिना उसे अविलंब
सुधार पर कैसे हो अवलंब ? 

शुभकामनाएं तो मात्र एक बहाना
अाँतर्य में कामनाओं का है खजाना
मन-बोली एक ना हो अविलंब
विश्वास पर कैसे हो अवलंब ? 

नए कपड़े तो मात्र एक बहाना
अाँतर्य में लफड़ों का है खजाना
ढंग से हल किए बिना अविलंब
चैन पर कैसे हो अवलंब ? 

साज सजावट तो मात्र एक बहाना
अाँतर्य में भाव मिलावट का है खजाना
दृष्टि शुद्ध बद्ध ना हो अविलंब
संबंधों पर कैसे हो अवलंब ? 

अभिन्नता तो मात्र एक बहाना
अाँतर्य में भिन्नता का है खजाना
दोहरेपन दूर किए बिना अविलंब
एकता पर कैसे करें अवलंब ? 

नाक कहना तो मात्र एक बहाना
अाँतर्य में नरक का है खजाना
विवेक जागृत ना हो अविलंब
समस्य पर कैसे हो अवलंब ? 

धर्म तो मात्र एक बहाना 
अाँतर्य में अधर्म का है खजाना
मानवता का विकास ना हो अविलम्ब 
पर्व-ईद-त्योहारों पर कैसे हो अवलंब ? 

दीवाली तो मात्र एक बहाना
आंतर्य  में प्रश्नावली का है खजाना 
उसे सुलझाए बिना अविलंब
ज्ञान विधा पर कैसे हो अवलंब ? 

रमेशा बोंगाले 
अध्यापक व लेखक
चिक्कामगलूर

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