(दीवाली के अवसर पर )
बहाने का खजाना
बाह्य अंधकार तो मात्र इक बहाना
आंतर्य में भरा है उसका खजाना
हटाए बिना उसे अविलंब
सदगुण पर कैसे हो अवलंब ?
आतिशबाजी तो मात्र एक बहाना
आंतर्य में जल्दबाजी का है खजाना
हटाए बिना उसे अविलंब
संमय पर कैसे हो अवलंब ?
भूरि भोज तो मात्र इक बहाना
अंतर्य में बुरी खोज का है खजाना
मिटाए बिना उसे अविलंब
सुधार पर कैसे हो अवलंब ?
शुभकामनाएं तो मात्र एक बहाना
अाँतर्य में कामनाओं का है खजाना
मन-बोली एक ना हो अविलंब
विश्वास पर कैसे हो अवलंब ?
नए कपड़े तो मात्र एक बहाना
अाँतर्य में लफड़ों का है खजाना
ढंग से हल किए बिना अविलंब
चैन पर कैसे हो अवलंब ?
साज सजावट तो मात्र एक बहाना
अाँतर्य में भाव मिलावट का है खजाना
दृष्टि शुद्ध बद्ध ना हो अविलंब
संबंधों पर कैसे हो अवलंब ?
अभिन्नता तो मात्र एक बहाना
अाँतर्य में भिन्नता का है खजाना
दोहरेपन दूर किए बिना अविलंब
एकता पर कैसे करें अवलंब ?
नाक कहना तो मात्र एक बहाना
अाँतर्य में नरक का है खजाना
विवेक जागृत ना हो अविलंब
समस्य पर कैसे हो अवलंब ?
धर्म तो मात्र एक बहाना
अाँतर्य में अधर्म का है खजाना
मानवता का विकास ना हो अविलम्ब
पर्व-ईद-त्योहारों पर कैसे हो अवलंब ?
दीवाली तो मात्र एक बहाना
आंतर्य में प्रश्नावली का है खजाना
उसे सुलझाए बिना अविलंब
ज्ञान विधा पर कैसे हो अवलंब ?
रमेशा बोंगाले
अध्यापक व लेखक
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