डॉ. लता (हिन्दी शिक्षिका)जी द्वारा खूबसूरत रचना#

बदलाव मंच हेतु मेरी कविता-मानवाधिकार दिवस पर मानवीय अस्तित्व को स्वीकारती एक औरत की जबानी...
काश! मेरी ज़बान न होती
दुआओं में कोई माँगता है
पर सवाल है क्या बिना ज़बान वाली का
कोई साथ निभाता है?
ज़बान चलती है तो
पेशा पक्का होता है मेरा
इस पेशे से पेट भरता है मेरा
वजूद के इस पत्थर को कोई न हिलाओ
वरना ज़रा कोई बिना कमाई साथ निभाके तो दिखाओ
बनाकर औरत को औरत तो बहुत खुश होते हो
इस औरत को मानव में मान के तो गिनाओ
लिखे जो फ़साने जिंदगी में कलम से
उनकी ज़ुबानी ज़रा मेरी ज़बान से तो दोहराओ
फिर न कहना तुम कि जबाँ न हो मेरी
वरना मैं यही कहूँगी कि तुम कहीं दूर चले जाओ..

डॉ. लता (हिन्दी शिक्षिका),
नई दिल्ली
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