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कविता
*दीप और पतंगा*
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दीप और पतंगा सम,
दूसरा नहीं कोई।
धन्य उनका अपनापन,
जैसे माचिस व रुई।।
दीपक जगमग करता,
पतंगा मंडराता है।
ज्यों-ज्यों बढे़ रोशनी,
वो राग सुनाता है।।
झूम उठा जब पतंगा,
अपना रूप दिखाया।
प्रकाश पुंज के आगे,
सफल नहीं हो पाया।।
दीप संस्कार संस्कृति की,
अनुपम सुन्दर शान है।
पतंगा जीव निराला,
रखता उसका मान है।।
अपनापन दिखलाता,
दूर नहीं रह पाता ।
आन-बान की खातिर,
सब कुछ ही मिट जाता।।
©®
रामबाबू शर्मा,राजस्थानी,दौसा(राज.)
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