कवि विष्णु चारग द्वारा 'रातें मुस्कुराईं' विषय पर रचना

सादर समीक्षार्थ

शीर्षक   :-    रातें मुस्कुराईं

भीगी सी यह चांदनी,
मन भावन सुहावनी।
न जाने क्यों? ये चहचहाईं,
आज फिर से मेरी रातें मुस्कुराईं।।

आज गगन के तारे देखे,
बड़ी देर तक सारे देखे।
देख उन्हें मृदुल हंसी आई,
आज फिर से मेरी रातें मुस्कुराईं।।

मृदुल चांदनी मुझको घूरे,
ज्यों रह गए हों कुछ स्वप्न अधूरे।
इन सपनों से है कठिन लड़ाई,
आज फिर से मेरी रातें मुस्कुराईं।।

रातों को मैं बैठा अकेला,
चंचल मन मेरा हर पल डोला।
बीते दिनों की यादें आईं,
आज फिर से मेरी रातें मुस्कुराईं।।

है कोई जो मुझको समझे,
रहता हूँ मैं खुद में उलझे।
इन उलझन से क्यों? मैंने प्रीति लगाई,
आज फिर से मेरी रातें मुस्कुराईं।।

विष्णु चारग 
अलीगढ़ , उत्तर प्रदेश

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ