स्वरचित रचना
फिरसे हवा चलने लगी है
फिर से हवा चलने लगी है।
फिरसे दवा मिलने लगी है।
कई ऐसे रोग है बहुत पुराने।
जिस पे बाकी है मल्हम लगाने।
किन्तु काफी समय बाद सही फिर
लोगों में चहलकदमी होने लगी है।
कुछ कम ही सही कोई बात नही
किन्तु मनोकामना पूरी होने लगी है।।
यू तो कई विद्यालय खुल गए है
और अब कई खुलने बाकी है।
कुछ घर में चिराग़ जलने लगा है।
कुछ घर में अब भी वैसे उदासी है।।
फिर भी जो भी हो सुकन मिलता है।
जो बाजार में रौनक बढ़ने लगी है।
जानें कितने महीनों बाद फिरसे अब।
निराशाओं में आशा की किरण जगी है।।
कौन क्या बोला किसने क्या किया।
उन बातों का काला चिट्ठा अब भी है।
मौन होकर भी सारा हिसाब कर चुके है।
फिरभी कुछ काला चिट्ठा पढ़ना अब भी है।
कुछ चिड़िया कैद है अब भी पिंजड़े में।
कुछ चिड़िया नील गगन में उड़ने लगी है।
कुछ तो इंतजार कर रहे है निकलने को।
फिरभी कुछ औरते घूँघट खोल बढ़ने लगी है।
*प्रकाश कुमार मधुबनी'चंदन'*
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