मन का दर्द
एक ही घर मे,सब अजनबी से हो गये.
टेसु के फूल ,अब कही बिखर गये ।
रंगो की रंगीनियां ,न कही गुलाल है,
करोना काल मे,सब बेनकाब हो गये ।।
एक घर मे बंद,सारे देखते है मूक से"
आँखो मे सवाल,खंजरो की नोक से!
कोसते है शब्द,वेदना को भीचं कर,
सबके बीच मे खडे,वो बेजुबान हो गये!!
अपने गिराते रहे'सौतेले,भुजंग बन,
आज भी डसते है,बैर बाँधे अपने मन।
टूट न जाऐ कही,सम्बंधो का तार ये,
शिव से हम तटस्थ बन,विष गरल पीते गये!
पीठ पीछे वार करते,सवेंदना,बची कहाँ"
नफरतो मे प्यार बोया,इसमे है कमी कहाँ।
रंगो के इस पर्व पर, अब तो कुछ विचार दो"
छील गये है घाव बन हम उन्हैं सिलते गये !!
हम उन्है सिलते गये """""
रीमा महेन्द्र ठाकुर(लेखिका)
रानापुर- झाबुआ- मध्यप्रदेश"
भारत"
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