स्वरचित रचना
विरह से पूर्व
जब छोड़ जाना है एक दिन तो
फिर क्यों अपनी ओर रिझाते हो।
ये तो तुम्हे भी पता है कन्हैया।
फिर क्यों तुम मोह जाल फैलाते हो?
प्रश्न कठीन है भले है ओ मेरी राधे
किन्तु सुनो राधे जो पूछे जाती हो।
प्रेम तो भौतिकता से कोषों दूर है।
तुम समझते हुए क्यों भरमाती हो।
जब जाना है तो तब जाना है क्यों
अभी से हम यू विरह विलाप करे।
इससे अच्छा होगा शेष समय है
जो इसमें मधुर प्रेम मिलाव करे।
इस तरह जो बातें तुम बनाते हो
प्रेम परीक्षा देना तुम्हे कहाँ आता है
तुम तो निर्मोही ठहरे ओ कान्हा
तुम्हे ह्र्दय पर तीर चलाना आता।
मत सुनाओ वो बात ओ कान्हा
जिस पर अमल न कर पाउ मैं।
तुम्हारे प्रवचन को सुनकर भी
सायद उन्हें न समझ पाउ मैं।
अन्तः ह्र्दय में केवल तुम हो
फिर और क्या समझ में आए।
मेरे लिए तुम्हारे प्रेम से बढकर
सब केवल पाषाण नजर आए।
हे राधे तुम्हारे प्रेम अनमोल है।
मैं तुम्हारे नाम से जाना जाउँगा।
बाकी कुछ भी कर लूं कही रह लू
तुम्हारे प्रेम का मोल न चुका पाऊंगा।
एक अंतिम निवेदन है मधुसूदन
जिसे तुम ह्र्दय से स्वीकार करो।
जीवन के अंतिम पल अवश्य आना।
यही मुझपर अंतिम उपकार करो।
तुम्हारा होकर ही केवल जीना हो
तुम्हारे गोद से मेरा प्राण निकले।
कृष्णा के रंग में रंग जाऊ मैं ऐसे
करते कान्हा कान्हा मेरा स्वास निकले।
ओ कलयुग के तुम प्रेम पंछियों
भ्रम के जाल से बाहर आ जाओ।
प्रेम का अर्थ त्याग निर्मल मन से
अब इसके सच्चे अर्थ समझ जाओ।
मन मैला करने से लाख भला
कही होना तन का मेल अच्छा।
जीवन एक उत्सव सा बिताना
की प्रेम का बंधे बन्धन सदा सच्चा।
प्रकाश कुमार मधुबनी'चंदन'
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