कल्पना गुप्ता/रतन जी द्वारा बेहद खूबसूरत गजल#

गज़ल

उदासियां हैं छाई चारों ओर घर खामोश है
न कर रहा जुबां से बात अब नगर खामोश है।

सजा पाई इश्क में बहुत मैंने अधर खामोश हैं
जनाजा उठ रहा मेरा सभी मगर खामोश हैं।

कहां आजकल हो रहे हादसे शहर खामोश है
जख्म लगे हैं सीने पर मेरे अधर खामोश हैं।

हवा मचा रही तबाही क्यों जमाने में
जगे हम नींद से लगा आज सहर खामोश है

लबों की मुस्कुराहटें गई साथ उनके
बगैर उसके यह दीवारों दर खामोश है।

तड़प रहे थे याद में उनकी दिलबर  हर पल
मुश्किलों में कटे थे दिन रह गुजर खामोश है।

हरा रखा मुझे मेरी तकदीर ने इस कदर
नजर में ना दिखी हमदर्दी हर बशर खामोश है।

कल्पना गुप्ता/रतन

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