कागज के फूल
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धर्म,कर्म सब लुप्त हो रहा अधर्म बना है शूल।
नाता-रिश्ता आज हो गया सच कागज के फूल।।
मात-पिता बेटा को अपना प्यार-दुलार जताते,
सर्व सुख न्योछावर करके सच्चा राह दिखाते।
वहीं बेटा मात - पिता को वृध्दाश्रम पहुंचाते,
देखशर्म शर्मा जाती बहु-बेटा ना तनिकलजाते।
जिससे खत्म हो जाता है सुख -शान्ति का कूल।
नाता-रिश्ता आज हो गया सच कागज के फूल।।
नारी है नारायणी वह भी धर्म की सार भुलाई,
पती धर्म बिसरा करके मनमानी करती अगुआई।
भूल गई है आज पती भी होता अपनी परछाई,
पती भी करता पत्नि से नाहक में रोज लडा़ई।
राई को पर्वत बना दोनों जाते झगडा़ पर तूल।
नाता -रिश्ता आज हो गया सच कागज के फूल।।
माता,पुत्री सम होता सास-बहुका प्यार अनूठा,
लेकिन आज कलियुग में हो गया सब झूठा।
कर्म, धर्म ,सत्य आज क्यों जन-जन से रूठा,
अपनाही अपनोंका आगे बढ़कर लाज है लूटा।
हो जायेगा लगता है धिरे - धिरे नष्ट समूल।
नाता-रिश्ता आज हो गया सच कागज के फूल।।
एक-नेक होकर सभीको सत्य,धर्म अपनाना होगा।
खोये हुये गत गौरव को पुनः वापस लाना होगा।
प्यारप्लावित होके सबकोअपनाधर्म निभाना होगा।
प्यार सभी को देना होगा और सभी से पाना होगा।
विश्वगुरू गरिमा के उपर चढे़ नहीं अधर्म के धूल।
नाता-रिश्ता आज हो गया सच कागज के फूल।।
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बाबूराम सिंह कवि
बड़का खुटहाँ , विजयीपुर
गोपालगंज(बिहार)841508
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