"पानी हूँ मैं"
"पानी हूँ मैं,
मैं ही हूँ अमृत, मैं ही ज़हर हूँ।
नदियों में निर्मल गंगा की धारा।
पापों से मुक्ति मैं ही कराती।
जीवन को निर्मल पावन बनाती।
आसमां में रह सितारों में चमकती,
ओस की बूंदें बन धरा पर मैं आती।
पुष्प पर मोती बन कर बिखरती।
बारिश की बूंदे बन सागर में मिलती।
सीप की मोती बनकर चमकती।
आँखों के काजल को मैं ही बहाती।
ख़ुशी हो या ग़म, दोनों में, आती।।
मुझे लोग जब करते हैं दूषित।
धूप में भाप बन कर उड़ जाती।।
गंदगी दूर कर फिर से पावन बनाती।
बारिश की बूंदें बन धरा पर मैं आती।
धरा को शीतल खेतों में हरियाली,
जीवन में खुशहाली लाती,
बाग बगीचे खिल-खिलाते।
किसानों के होंठों पर मुस्कान सजाती।।
नदी तालाब फिर भर-भर जाते।
अंहकार जब तेरे मन में समाते।
पानी का मोल तुम समझ न पाते।
चारों और बाढ़ रूप में कोहराम मचाती।
खेतों में अन्न नष्ट कर, आँगन में आती।
बड़े बड़े घर महल आलिशान गिराती।
चाहे राहों में कोई भी आए,
पत्थर या चट्टान टकराए।
रफ़्तार हमारी रोक ना पाते।
मैं अपनी राह खुद ही बनाती।
मै ही जीवन दायिनी, मैं ही मृत्यु तक पहुंचाती।प्रभु चरणों में अमृत बन कर,
पापों से मुक्ति मैं ही दिलाती।"
अम्बिका झा ✍️
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