बुद्ध पूर्णिमा विशेष
शीर्षक-अंगुलीमाल और बुद्ध
थर थर कांप रही थी धरती
अंगुलीमाल के भय से
सजा रहा था काट उंगलियां
लगा अपने हृदय से
रक्त सनी धरती थी
जंगल कांप रहा था भय से
हृदय द्रवित विचलित था मानव
अंगुलीमाल के भय से
तभी प्रण लिया बुद्ध ने
करुंगा भय को मुक्त धरा से
सहस्त्र शीश का वचन लिया जो
उस व्यथित हृदय से
निकल पड़े निर्जन वन
प्राणी रोक रहे थे भय से
उसे कहां भय जो हो मुक्त
हर शंका हर संशय से
कहा -ठहर जा ,कहा- ठहर-जा
क्रोथ से कंपित हिय से
मैं तो ठहरा हूं तू कब
ठहरेगा बता इस हठ से
जिसे जोड़ सकता ही नहीं फिर
उसे तोड़ता क्यूं है
सबमें प्राण बसे हैं
इससे तू मुख मोड़ता क्यूं है
बना दिया भक्षक को रक्षक
जिसने तप के बल से
रामायण की रचना कर दी
जिसने द्रवित हृदय से
ऐसी रची ऋचाएं
जिसने पढ़ी वही सुख पाया
राम ही राम रटा वह दस्यु
छूटा हर बंधन से
बुद्ध ने बुद्ध बनाया उसको
उसकी शरण जो आया
मानवता का पाठ पढ़ा
जीने की राह दिखाया।
श्रीमती सुशीला कुमारी
चतरा
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