एक साहित्यकार निर्भीक, स्वतंत्र निष्पक्ष होने के साथ-साथ जाति -संप्रदाय से ऊपर उठकर समतामूलक, साम्यवाद, मानवतावाद और एकतावाद में अग्रणी भूमिका निभाता है और ये विचारधारायें उसके व्यक्तित्व का निर्माण करती हैं ,
वर्तमान परिदृश्य में रचनाकार तो रचनाएँ लिखते हैं लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण उनकी रचनाएँ प्रासंगिकता के आयामों को परिलक्षित नही कर पातीं । रचनाएँ प्रेरणास्पद, सार्वभौमिक सत्यपरिपूर्ण होने के साथ-साथ उद्देश्य पूर्ण,सत्य- तथ्यपरक होऔर क्रांतिकारी हों तो वह सर्वकालिक और प्रासंगिक होने के साथ हीं सर्वमान्य होंगी (हालाँकि सर्वमान्य होना क्रांति की शर्त नहीं, पर प्रासंगिकता अनिवार्य है )
रचना लेखन का जुड़ाव आत्मिक गहराई से होते हुये लेखनी तक पहूँचनी चाहिए, हवा हवाई शब्द संयोजन से रचना अधूरी और महत्वहीन हो जाती है। साहित्यकार ही समाज के मार्गदर्शक हैं उन्हे पूरे कर्तव्यनिष्ठ भावना से हमेशा समाज के उस तबके के साथ खड़ा होना चाहिए जो शोषित और वंचित हों।..
सादर
टीम बदलाव मंच
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