संघर्ष
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जिनको ठोकर मिली राह ,
मन के हर-घर बौने पाये ।
संघर्ष बहिष्कृत था जिनका ,
साहित्य दायरे में लाए ।।
होरी ,धनियां ,मंगल ,गंगी,
घीसू घर साहित्य के आये ।
पत्थर पर करते चोट"प्रेमचन्द",
नहीं विवादों से घबराए ।।
कोई कहता रूप बाहरी ,
स्त्री मन की समझ नहीं ।
सबक जटिलता के मन का,
घृणा प्रचारक परख नहीं ।।
प्रगतिशील लिखता है कोई ,
गांधीवाद नजर ढाये ।
"सोजे-वतन "प्रकाशन से ,
प्रतिबंध लगा जब लेखन को ।
धारा बदल सकी ना चिन्तन ,
अपनत्व वतन के चेतन को ।।
धनपत राय नबाब बने ,
मुन्शी फिर प्रेमचन्द छाए ।
हो स्तब्ध वतन पीड़ा से ,
आशा का मन-दीप जलाए ।
अपनत्वबोध से मुक्तिबोध,
आदर्श हीनता छू नही पाये ।।
लिख क्या ? सकता "अनुज "तुम्हें,
कलम -सिपाही मन भाए ।
डॉ अनुज कुमार चौहान "अनुज "
अलीगढ़( उत्तर प्रदेश)
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