जिनपे हम रखकर सर रो लेते थे

*जिनपे हम रखकर सर रो लेते थे* 

 *जिनपे हम रखकर सर  रो लेते थे
जिनपे हम रखकर सर  रो लेते थेअपने दिल के बोझ को बाँट हलका लेते थे
अब वो कंधे ढूंढने से भी नही मिलते।

कभी जिसमें हम खेलते थे खुश होकर आँगन में।
जब भी चोट लगता जाकर सर छुपाते थे जिस आँचल में।
अब वो आँगन,वो आँचल ,ढूंढने से भी नही मिलते।।

अंगुली पकड़कर जिन्होंने था कभी हमे चलना सिखाया।
गोदी में लेकर था हमे खुशी  जिन्होंने घर घर घुमाया।
अब वो शहारा वो अपनापन नही ढूंढने से भी नही मिलते।।

जो पढ़ते थे हम बैठ के  किताब बड़े चाव से।
वो डायरी जिसमे लिख देते थे जिंदगी के जो घाव थे।
वो किताबे वो डायरी अब ढूंढने से भी नही मिलते।

वो दादा दादी के साथ बैठकर सुनना किस्से कहानी।
वो बचपन के गुजरने का इंतजार वो आने वाला जवानी।
वो बचपन वो जवानी के महफ़िल अब ढूंढने से भी नही मिलते। 

घूमना टोली बनाकर वो गाँव कायबग गलियारों में।
वो आनन्द में घूमना संग ठहाके लगाकर यारो में।
वो टोली वो ठहाके अब ढूंढने से भी नही मिलते।।

अब वो शक्ति नही अब वो रौनक नही।
झूमने को बजाने वाले वो तबला ढोलक नही।
वो तबलावादक  वो ढोलकिया अब ढूंढने से भी नही मिलते।।

समझ मे नही आता जीते है या वक्त काटते
,ख़ुदसे से है रोते खुदके संग दुख बाँटते।
वो हरकत वो अपने अब ढूंढने से भी नही मिलते।।

©प्रकाश कुमार
मधुबनी, बिहार*

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