रावण

शीर्षक - - रावण
      =========
विधा - - स्वतंत्र

था दशानन वह और था लंकेश, 
पर था सोने के महल में क्लेश, 
लिप्सा उसको ऐसी जगी, 
की नगण्य रह गया वह शेष। 

ताक़तवर था पर था अभिमानी, 
वेदों का ज्ञाता पर था अज्ञानी, 
स्त्री लिप्सा जगी जब मन में, 
उसने किसी की एक न मानी। 

घमंड था उसे कि उसने कैलाश हिलाया, 
शिव पार्वती को उसने डराया, 
भोले को लंका ले जाने की जिद में, 
उसने अपना अहंकार भरमाया। 

छल - कपट कर जानकी का अपहरण किया, 
मुनि वेशधर उसने विचरण किया, 
नारी जाति का अपमान का उसने, 
अपने काल का तब वरण किया।

मर्यादा को छोड़कर, छल का मार्ग अपनाया, 
अपने ही भाई को, बेघर करवाया, 
मंदोदरी ने उसे बहुत समझाया, पर उसका विचार इसे रास ना आया। 

अपना वर्चस्व बढ़ाने के लिए
उसने कुचक्र चलाए, 
अपनी कुटिल नीति से, बहुत मार्ग अपनाए, 
पर दुराचारी का तो नाश निश्चित होता है, 
अपने पूरे कुल के प्राण दांव पर लगाए। 

झूठ-सच के पलड़े में, सच की जय होती है, 
कुल नाशी बना जो रावण, उसकी पराजय होती है, 
मर्यादित राम ने किया संहार उसका, 
रणभूमि में तब सत्य की लय होती है। 

इसलिए रावण नहीं, बनना तुम राम, 
दुष्टों का कर देना काम तमाम, 
कलियुगी रावण भी न जीत पाएंगे, 
मोक्ष देना उन्हें, कर देना यह काम।


  रचनाकार - - - नीलम डिमरी
    चमोली,,,, उत्तराखंड

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ