ग़ज़ल
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तंग तेरा जो दामां नहीं है
क्या ख़ुदा का यह एहसां नहीं है
अम्न-ओ-उल्फत की यह सरज़मीं है
जंग का कोई मैदां नहीं है
दौर-ए-हाज़िर के क़ातिल को देखो
क़त्ल कर के पशीमां नहीं है
आ भी जाओ ज़रा अब सनम तुम
अब तो जीने का इम्कां नहीं है
अज़्म-ओ-हिम्मत है अब भी सलामत
चाक जेब-ओ-गिरेबां नहीं है
काम हैवानियत की है करता
क्या वह इंसान हैवां नहीं है
दर्द देकर गया है वह ऐसा
जिसका कोई भी दर्मां नहीं है
राह में हर क़दम पर हैं कांटे
मंज़िल-ए-इश्क़ आसां नहीं है
क्यों मची है रईस इसमें हलचल
जब कोई दिल में मेहमां नहीं है
रईस सिद्दीकी बहराइची यूपी
7348161874
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