कविता
* प्यासा पंछी *
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भू मण्डल पर देखो,
शान हमारी,
परमेश्वर से बंधी है,
सबकी आशा..
दिनभर खाते पीते,
नही कोई कमी,
सब कुछ है फिर भी,
पंछी प्यासा ..!!
सदियों से सुनते आये,
धर्म की जड़ सदा हरि,
प्यासे को पानी पिलाना,
जीवन की परिभाषा..
समाज सेवी बन हम,
सेवा सबकी करते,
यह ध्यान नहीं रहा
पंछी प्यासा..!!
संस्कृतियों का,
देश हमारा,
रहती सबको,
अभिलाषा..
रोज रोज ही,
मोटर गाड़ी धोना,
शायद इसलिए,
पंछी प्यासा..!!
जैव विविधता,
हमें सिखाती,
मिट्टू तोता करता,
घर में तमाशा..
प्रकृति प्रेम का,
खेल निराला,
सबके मन को भाता,
फिर भी प्यारे,
पंछी प्यासा..!!
याद करो वो दिन,
पंछी गीत सुनाते,
न कोई ढोल,
न कोई ताशा..
मीठी लगती उनकी,
बोली भाषा ,
ऐसा क्या हुआ कि,
पंछी प्यासा..!!
सही बात बतला दूं,
हम स्वारथ के अंधे,
भूले जीवन अहसासों को,
अब नहीं विशवासा..
*पर मंत्र यह उपकारी*,
घर-घर बंधे पक्षी *परिण्डा*
फिर देखें, कैसे रहें,
*पंछी प्यासा*।।
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