रचनाकारा प्रतिभा द्विवेदी मुस्कान जी द्वारा 'हालांकि' विषय पर रचना

*हालांंकि*

हालांंकि अच्छे दिन आने ही वाले थे ...बीच में कोरोना आ गया !!!
देश में विकास का पहिया रफ्तार 
पकड़ने ही वाला था ....
एन वक्त पर कोरोना आ गया ।।

कहने को हालांंकि अर्थ व्यवस्था 
बिगड़  गई है।।।
पर सच तो ये है सुधरी कब थी ??

हालांंकि कोरोना ने सीमित आय में घर चलाना सिखा दिया ।।
पर चादर में पैर सिकोड़ कर ही सोया करते थे पहले भी तो ।।

अमीर अब भी अमीर है ..
गरीब अब भी गरीब ..
ना मँहगाई घटी है  ...
ना शौक किसी ने कम किए ।।

जो चल रहा था 
वही ढर्रा चल रहा है....
हालांंकि मास्क और सेनेटाइजर का चलन नया है ।।

लोग घरों में कैद हुए 
सड़कों पर भी सन्नाटा था..
कामकाज ठप्प हुए ।।
जेबों में मनी का भी घाटा  था!!

हालांंकि जी रहे थे लोग फिर भी
दहशत के साए में ।।।
रखते थे दो गज की दूरी 
घर से बाहर कहीं आये-,जाये में ।

अच्छे दिन तो नहीं आये ...
हालांंकि कुछ तो अच्छा हुआ है ।
प्रकृति ने जो करवट बदली ।।
सबक सबको बढ़िया मिला है ।।
सबक सबको बढ़िया मिला है ।।
लेखिका-प्रतिभा द्विवेदी मुस्कान © सागर मध्यप्रदेश ( 26 अगस्त 2020 )
मेरी यह रचना पूर्णतः स्वरचित मौलिक व प्रमाणिक है सर्वाधिकार सुरक्षित है इसके व्यवसायिक उपयोग करने के लिए लेखिका की लिखित अनुमति अनिवार्य है 🙏🙏

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