झूला पड़ा दीवार पर ,डालें ही गायब हो गईं
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सावन की खुशबू थीँ जो ,
मल्हारें ही गायब हो गईं ।
मेघ बरसते हैं अब भी ,
बौछारें ही गायब हो गईं ।।
बात कहकर हैं मुकरते ,
बातें ही गायब हो गईं ।
बिन-मांगते धन कर मदद ,
यादें ही गायब हो गईं ।।
मजदूर की मजदूरी न दें,
ईश बनना चाहते ।
हैं मगर इन्सान ,
इंसानियत ही गायब हो गईं।।
तकिया लगाके झूलते ,
पटलियां ही गायब हो गईं ।
झूला पड़ा दीवार पर ,
डालें ही गायब हो गईं ।।
डॉ अनुज कुमार चौहान "अनुज"
अलीगढ़ (उत्तर प्रदेश)
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