कवि अनुराग बाजपेई जी द्वारा समसामयिक विषय पर रचना

रोइ बहुत या चीखी थी,
जब तुमनें बिटिया नोची थी।

नाज़ बहुत होगा तुमको,
पर सोंच तुम्हारी ओछी थी।

काट जुबां जब फेकी तुमनें,
किस तरह से हड्डी थे तोड़ रहे।

जाति का गर था रौब जमाना,
तो घटिया सोंच क्यों सोंची थी।

रोइ बहुत या चीखी थी,
जब तुमनें बिटिया नोची थी।

तुम चार मगर वो अबला थी,
उसकी चीखें पर सजला थीं।

न चीख सकी न चिल्ला पाई,
क्या करती न वो कोई सबला थी।

हवाले कर दो हत्यारों को,
देखो क्या मौत हमनें सोंची थी।

तेज़ाब की एक एक बूंद गिराएँ,
हत्यारे भी वैसे ही चीखें चिल्लाएं।

कानून की आंखें बंद रहें,
सरकारें भी न कुछ कह पाएं।

वैसे ही हम उनको तड़पायें,
जैसे तुमनें बिटिया नोंची थी।

रोइ बहुत या चीखी थी,
जब तुमनें बिटिया नोची थी।

अनुराग बाजपेई (प्रेम)
बरेली (उ०प्र०)

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ