बदलाव मंच
०४/१०/२०२०
छंद- *दोहा*
विषय -सम सामयिक
*सादर समीक्षार्थ*
खाकी खादी ने किया, मानवता का अंत।
पतझड़ कितने ही गए,आया नहीं बसंत।।
नयनों से झरना बहे, मुख ना आवै बैंन ।
बिटिया की चीखें सदा, जगा रही हैं रैंन।।
दिन के उजालों में भी, आती नहि आवाज।
बे खबर यहाॅऺं हो रहा, निष्ठुर बना समाज।।
भेड़िए की खाल में, घूम रहा इंसान।
नोंच-नोंचकर में पता, मानव की पहचान।।
माॅऺं बहन बेटी कोई कर न सकी कुछ काम।
मन से देती बददुआ होय बुरा अंजाम।।
*डॉ अंजू गोयल*
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