मंच को नमन
दोहा
ढाई आखर जप बने, मूर्ख यहांँ सुजान।
अहिंसा के पथ चलकर ,बापू बने महान।।
अहिंसा को नमन करें, बड़े बड़े शैतान।
हिंसक को मिलता नहीं, दुनियां में सम्मान।
अहिंसा से बढ़ा नहीं, जीवन में कोई ज्ञान।
सदा में सुख पाओगे ,करिए सब का मान।।
जीवन से बढ़कर नहीं , जग में कोई दान।
अहिंसा का होता है, जगह-जगह गुणगान।।
लगन धैर्य ने किए हैं, माणिक अनुसंधान।
अहिंसा के बल पर ही, महक रहा उद्यान ।।
हिंसा से कब हुए हैं, किसके जग में गान।
अहिंसा से जाति नहीं, कभी किसी की जान।।
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मैं घोषणा करता हूंँ कि यह दोहे मौलिक स्वरचित है।
भास्कर सिंह माणिक, कोंच
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