कवि बाबूराम सिंह जी द्वारा 'मानवता या दानवता' विषय पर रचना

मानवता या दानवता
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चौरासी लाख योनियों में मानव योनि सर्वश्रेष्ट हैं ,जिसे पाने के लिए समस्त देवता लोग भी तरसते हैं ।सर्वोतम मानव योनि का सार मानवता ही है ।मानवता में सब गुण समाहित हो जाते,जैसे
क्षमा ,दया, करुणा  ,प्रेम ,सदभाव आदि । मानवता   बिना     मानव जीवन पशु से भी बदतर है ।अतः
मानवता का त्याग घोर संकट में 
भी कदापि नहीं करना चाहिए  ।

रामचरित मानस लंका काण्ड में 
रावण को समझाते हुए अंगद जी
कहते हैं कि हे रावण चौदह किस्म के लोग जिन्दा ही मुर्दा के समान हैं ।गोस्वामी तुलसी दास जी लिखते हैं कि -
काम कौल वस कृपणी विमुढा़।
अति दरिद्र अजसी  अति  बुढा़।।
सदा   रोग  वस  संतत   क्रोधी ।
विष्णु विमुख  श्रुति  संत वरोधी।।
तनु  पोषक  निन्दक अघ  लानी।
जिवीत  शव  सम  चौदह  प्रानी।।
अर्थात -सुख के जितने भी साधन हैं वह काम के अन्तर्गत आ जाते
पंच मकार ही कौल है ।जो सदैव 
रोगी हो ,जो कहीं भी जाता हो अजस पाता हो ,जो विष्णु और संतों का विरोध करता हो ,जो मात्र अपने परिवार का ही भरण 
पोषण करता हो ,जो हमेशा दुसरों 
की निन्दा करता हो और जो कहीं भी जाता हो पाप ही करके आता हो ,यह चौदह प्रकार के लोग मात्र
दानवता ही में हैं ।

अतः इन सबसे बंचकर जीव -जगत की भलाई करने वाला ही 
नेक नियत व शुध्द नजर रखकर
मानव धर्म निभाने वाला ही सच-
मुच मानवता का पुजारी है और 
यहीं मानव जीवन का मूल लक्ष्य 
होना चाहिये ।सर्व सम्मत से यही 
सर्वोपरि है ।दानवता वह अवनति
खाई है  जहाँ   से   गिरकर   फिर मानव निकल नहीं सकता । अतः
दानवता   त्याग    कर   मानवता अपनाना    ही   परम अनूठा   है।

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बाबूराम सिंह कवि
बड़का खुटहाँ , विजयीपुर 
गोपालगंज (बिहार)८४१५०८
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