बेचैन पास आने को...
हमपे क्या-क्या बीत रही है
मालूम नहीं इस ज़माने को
बादल कितने परेशान हैं
साहिल को समंदर बनाने को
देखो कितनी बेचैनी हुई हैं
तेरे दिल के करीब आने को
आरज़ू जैसे गहना बन गयी
उनके तन से लिपट जाने को
कुछ सुझा नहीं तो चूमा उनको
और क्या था वहाँ आजमाने को
मेरे पास केवल दुआ थी "उड़ता"
उनके माथे पर सजाने को
यही इजहार-ए-मोहब्बत था
कुछ आता ना था दीवाने को.
स्वरचित मौलिक रचना
द्वारा - सुरेंद्र सैनी बवानीवाल "उड़ता"
झज्जर - 124103 (हरियाणा )
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