समुन्द्र मंथन
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पुराण में समुद्र मंथन की,
एक कथा है वर्णित।
एक बार इंद्र को,
दुर्वासा ऋषि ने,
श्राप दिया धनवैभव विहीन,
होने का होकर कुपित।
श्रापित देवराज हुए,
निर्बल और श्रीहीन,
श्रापवश श्री लक्ष्मी,
क्षीरसागर में हुई विलुप्त।
बिना लक्ष्मी के,
स्वर्ग में मची हाहाकार।
देवलोक और सारी,
पृथ्वी हुई तेजरहित।
बिना लक्ष्मी के देवता हुए,
अलंकार विहीन श्रीहीन।
लगे असुर स्वर्ग में ,
मचाने भीषण उत्पात।
देवगण मिलकर,
पधारे बिष्णुधाम क्षीरसागर।
बिनती कर बोले,
हमारी रक्षा करो है नाथ!
श्री नारायण ने दी आज्ञा,
करवाने की समुन्द्र मंथन।
असुरों को दिया अमृत का,
लोभ कूटनीति के तहत।
सुर-असुर दोनों ने,
मिलकर किया मंथन।
बना मथानी मंदार पर्वत,
नेति बासुकी नाग का बंधन।
पीठ पर रखा मंदार पर्वत,
भगवान बिष्णु ने कछुआ बन,
मंथन में निकला प्रथम बार,
कालकूट हलाहल किया पान।
भगवान भोले शिवशंकर ने,
कहलाये नीलकंठ भगवान।
समुन्द्र मंथन में निकले,
चौदह रत्न,अश्व उच्चश्रवा,
ऐरावत हस्ति कस्तुभ्मणि,
कल्पवृक्ष,श्रीलक्ष्मीजी
पाञ्चजन्य शंख वृक्ष पारिजात।
रंभा,अवतार मोहिनी कमलासन,
धनवन्तरी, कामधेनु कलश अमृत।
किया बखेड़ा असुरों ने ,
करने को अमृतपान।
भगवान विष्णु बने कन्या,
लगे बाँटने सुधा मोहिनी बन।
श्रीहरि की चालाकी देख असुर राहु,
बैठ देवपंक्ति में करने लगा अमृतपान।
देख प्रभु ने काट दिया सर,
राहु का चलाकर चक्र सुदर्शन।
सर-धड़ से अलग होकर,
कहलाया राहु-केतु रहा जीवित।
हुई देव की बुद्धिमानी से,
असुरों पर सुर की जीत।
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स्वरचित और मौलिक
सर्वधिकार सुरक्षित
कवयित्री:-शशिलता पाण्डेय
बलिया(उत्तर प्रदेश)
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