कवि प्रकाश कुमार मधुबनी"चंदन" द्वारा 'बहन चली ससुराल' विषय पर रचना

*स्वरचित रचना*

*बहन चली ससुराल*

एक धागा टूट रहा है।
जाने क्या छूट रहा है।
 बहन मेरी ससुराल चली।
जीवन फिर बदल रहा है।

जो मेरी व्यथा को एक 
पल में भांप जाती थी।
जो है तो मुझसे छोटी,
 माँ सी हुक्म चलाती थी।

वैसे तो खूब झगड़ती थी।
मुझपे शासन करती थी।
अब लगता है ऐसा मानो।
 सबसे ज्यादा ध्यान रखती थी।

अब अपने काम हेतु 
किसको मैं बताऊँगा।
जब होगा राज बताना
 जा के किसको बताऊँगा।

सुने आँगन करके ना जाने
प्यारी चिरैया क्यों चली।
 चमन खिल उठेगा जिस 
आँगन में मेरी बहन चली।

माता की सारी जमा पूंजी।
पापा के खुशियों की कुँजी।
कौन समझ पाए पल में।
मेरे घर की मुस्कुराहट चली।

कुछ समय बाद भले सब 
पहले जैसा हो जाएगा।
घर वाले भी समझ जाएंगे
फिर जीवन आगे बढ़ जाएगा।

भले मिल जाए नये साथी।
भले हो जाये हम वक्त के आदी।
किन्तु मिलने से क्या होता।
 क्या हर वक्त वो दुलार मिल पायेगा।

ये सब सोच सोच मेरा मन
 ना जाने क्यों पिघल रहा।
बहन मेरी सशुराल चली
जीवन फिर बदल रहा।

*प्रकाश कुमार मधुबनी"चंदन"*

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