डॉ. राजेश कुमार जैन जी द्वारा अद्वितीय रचना#

सादर समीक्षार्थ
 लघु कथा
 विषय       -        ईर्ष्या


 मोहन कक्षा 12 में पढ़ता था। उसका सहपाठी रमेश पढ़ने में बहुत होशियार था। मोहन ने उससे दोस्ती कर ली थी, और अक्सर उससे पढ़ाई में मदद लेता रहता था।
     सभी अध्यापक भी रमेश को उसकी सादगी, सच्चाई और कठिन परिश्रम के कारण पसंद करते थे।
    धीरे-धीरे बोर्ड की परीक्षाएँ करीब आने लगी। सभी विद्यार्थी परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त करने हेतु जी तोड़ मेहनत कर रहे थे। 
   मोहन जब भी रमेश से कोई सवाल पूछता वह चुटकियों में मोहन को समझा कर उसकी सभी शंकाओं का समाधान कर देता था।
   मोहन एक दिन रमेश से उसकी अंग्रेजी की कॉपी यह कह कर लाया कि उसे कुछ काम करना है और शाम को कॉपी वापस कर देगा, किंतु मोहन के दिमाग में ईर्ष्या वश यह धारणा घर कर गई कि मैं उसकी कॉपी रख लेता हूँ, जिससे रमेश पढ़ नहीं पाएगा और उसके नंबर कब आएँगे।
        अचानक शाम को मोहन के पिता की तबीयत खराब हो गई उन्हें अस्पताल भर्ती कराना पड़ा। तब रमेश के पिताजी ने हीं अपनी गाड़ी भेजी थी और स्वयं अस्पताल जाकर डॉक्टर से मिलकर सारी व्यवस्था कर दी थी।उन्हीं के कहने पर सर्वोत्तम इलाज मिलने के कारण रमेश के पिता के पिता अगले दिन ही ठीक हो कर घर आ गए थे।
      रमेश ने भी मोहन को बहुत हिम्मत बढ़ाई और हर प्रकार से उसकी मदद की। इससे मोहन को अपनी सोच पर अत्यंत लज्जा आई। वह अपने किए पर शर्मिंदा हुआ कि वह तो रमेश की कॉपी इसलिए लाया था कि रमेश पढ़ नहीं पाएगा और उसके परीक्षा में कम नंबर आएँगे, किंतु रमेश और उसके पिता ने निःस्वार्थ भाव से मोहन की इतनी मदद की । उनके कारण ही मोहन के पिता शीघ्र स्वस्थ होकर घर लौटे। रमेश के  सरल हृदय का बदला छल कपट से लेना चाह रहा था।
    अब रमेश के दिल का मैल निकल गया था। वह अपने किए पर अत्यंत लज्जित था। उसने हृदय से रमेश को अपना मित्र मान लिया था।


 डॉ. राजेश कुमार जैन
 श्रीनगर गढ़वाल
उत्तराखंड

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