"किसान "
मैं हूँ भारत देश का किसान
बदहाल जिन्दगी जीता हूँ
निज तन का सीना फाड़ कर,
जमीन को चीरता हूँ
उम्मीदों के बीज बो कर
देश के भविष्य को संवारता हूँ
मै हूँ धरती पुत्र
किसान कहलाता हूँ
लहू और श्रम जल से सींच कर
फसलें उगाता हूँ
उपजाता हूँ अनन्य फसलें
जगत के भरण पोषण के लिए
विपन्नता की रोटियों को
क्षुधा की आंच पर पकाकर
आश्वासनों की थाली में परोस कर
परिजनों को खिलाता हूँ
भरता हूँ उदर उनका
आधा अधूरा ही सही
लेकिन मैं अपने पेट में
गांठ बांध भूखे ही
दुर्गति का कफन ओढ़
सो जाता हूँ
दफन हो जाता हूँ
अनंत चिंताओं के बोझ तले
कुदरत और सरकार के
दो पाटों में पीसा जाता हूँ
क्योंकि मै किसान हूँ
सर्दी, गर्मी, बरसात क्या
मेरे लिए सभी एक से
अर्ध तन वसन में
जिन्दगी बिताता हूँ
सारा जग सोता है जब
मैं सारी रात जागता हूँ
खेत की रखवाली को
🐮🐂🐄पशुओं को ताकता हूँ
सहेज कर उम्मीदों को
आसाओं के आसमां तले
निष्ठुर घटाओं को
हृदय से पुकारता हूँ
सरकार को क्यों दोष दूं
जब भगवान ही नहीं रहम दिल
अपना हक अपनी मजदूरी
ही तो मैं मांगता हूँ
मांगता हूँ पानी
सूखी धरा के लिए
पानी की एवज में
आश्वासन का अनुदान
भीख में मिल जाता है
कृषि प्रधान देश का
भिखारी सा किसान है
भारत देश तो महान है
लेकिन किसान कहाँ इन्सान है
आज किसान देश का
खो रहा अपनी जान है
मांगता है वाजिव दाम
अमोल मोती दाने अन्न का
तो उसकी पीठ पर
लाठियां बरसाईं जाती है
जब लद जाता है कर्ज से
कर्ज के बोझ को
जब नहीं सहन कर पाता है
नहीं दिखता है विकल्प कोई
जान देने के सिवा
निज रोपे दृख्त से लटक कर
फांसी पर चढ़ जाता है
आज देश का किसान
दुर्गति के दुष्काळ में
फंस कर मर जाता है
मजबूरी में जान गवांता है
रचना कार- सुभाष चौरसिया हेम बाबू महोबा काका जी
स्व रचित मौलिक अप्रकाशित सर्वाधिकार सुरक्षित
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