अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर डॉ दीपक क्रांति की तीन मार्मिक कविताएं


1.सहनशक्ति की मूरत 

बहुत भयावह होती है 
मातृत्व के लिए तैयार होती बेटियों की ज़िन्दगी, 
भय और भी भयावह हो जाता है तब, 
जब 
'पीरियड' झेलती लड़की ने 
नहीं पढ़ा हो स्कूल का एक भी पीरियड ;
और 
पत्थरों को पिघलनेवाली परिस्थितियां उस परी के लिए 
तब आ जाती हैं 
जब 
एक अनपढ़-गँवार बेटी 
जीती है 
बिना माता के ही 
माता बनने के योग्य बनते हुए 

रोज बना-बना के बन्नो 
घरौंदे बिगाड़ती है 
पर वो परी भी 
शर्मो हया से,
झिझक से झेलती है 
संक्रमण 
कभी विषाणुओं का 
कभी वासनाओं का;
और 
खोल नहीं पाती मुँह 
किसी खोखले 'अपने' के सामने ;

शायद यहीं से शुरू हो जाता है 
'सहना '
जो
शादी के बाद भी 
बेटियाँ 
सहती रहती हैं 
बिना कुछ मुँह खोले 
यातनाएं 
कभी बहु बनकर, 
कभी बच्चे की माँ बनकर, 
तो कभी लाचार बूढ़ी माँ बनकर ;
और औरत 
बन जाती है 
बार-बार 
सहनशक्ति की मूरत !
-डॉ दीपक क्रांति


 2.बेटियां 

सौभाग्य की सिंगार हैं बेटियाँ, 
माँ काली कभी अम्बे-अवतार हैं बेटियाँ !

वंश-परम्परा के वरदान बेटे हैं अगर तो, 
माँ-बाप को मिली परम पुरस्कार हैं बेटियाँ!

वीभत्स भ्रूण-हत्या के ठेकेदारों सुन लो,
सृष्टि के शुभारंभ की संचार हैं बेटियाँ !

सहनशीलता में संसार की सुंदरतम कृतियां हैं पर, 
सास पे बहु का कभी बहु पे सास का अत्याचार हैं बेटियाँ !

कभी सूर्पणखा कभी सीता कभी द्रौपदी बनकर, 
रामायण-महाभारत की भी आधार हैं बेटियाँ !

कभी आदि-अंत की अभिन्न अंग हैं, 
अत्याचार होने पर अंगार हैं बेटियाँ !

है एक ही शरीर-रचना पर देखते दूसरों की बहु-बेटियाँ, 
लोगों के लिए अपने ही घरों में क्यों बेकार हैं बेटियाँ !

मुखिया से मुख्यमंत्री तक अव्वल सदा से हैं, 
कौन कहता है आज लाचार हैं बेटियाँ !

नफ़रत करें तो सर्वनाश भी कर दें, 
ममता,क्षमता प्यार -दुलार हैं बेटियाँ !

बेटी पढ़ाओ, बेटी बचाओ 'दीपक',
गावों में अभी भी अनपढ़-गँवार हैं बेटियाँ !
-डॉ दीपक क्रांति


 3. दहेज और बेटी 

दहेज को लेकर 
समाज की दोहरी नीति 
और
बेटियों की आप बीती 
सुनने के बाद 
हर माँ 
जनना चाहेगी बस बेटा, 
माँ ही घोंटना चाहेगी 
आगंतुक बेटी का गला !

ताकि हो सके 'उद्धार'
उस उधार के 'बोझ' का, 
ताकि न मारा जाये 
बार-बार
उसको
भविष्य में ताने मार-मार ;
इस तरह मजबूर औरत ही 
बन जाती है दुश्मन 
'भावी' औरत की ;
क्योंकि दहेज के बिना 
बन जाती है ब्याही बेटी 
महज़ एक बैरंग चिट्ठी ;
जिसके पास न तो है 
अपनेपन का कोई लिफ़ाफ़ा, 
न ही है कोई महंगा 
टिकट सटा हुआ 
उसके 'टिके' रहने के  लाइसेंस-सा; 

अगर है तो बस पता, 
पिता के पास मायके लौट जाने का ;
आखिर 
कब तक करे नारी 
आत्महत्या ?
-डॉ दीपक क्रांति

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